Ishq Bhi Karna Hai Ghar Ke Kaam Bhi | Foziya Rabab Shayari | Jashn-e-Rekhta

About This Shayari:-   This Beautiful Shayari 'Ishq Bhi Karna Hai Ghar Ke Kaam Bhi' which is written and performed by Foziya Rabab for Jashn-e-Rekhta.

About This Shayari:-   This Beautiful Shayari ‘Ishq Bhi Karna Hai Ghar Ke Kaam Bhi’ which is written and performed by Foziya Rabab for Jashn-e-Rekhta.

Ishq Bhi Karna Hai Ghar Ke Kaam Bhi

देर तक आंख मुसीबत में पड़ी रहती है

तुम चले जाते हो तस्वीर बनी रहती है
मैं मुकम्मल हूं मगर फिर भी अधूरापन है
ऐसा लगता है कहीं कोई कमी रहती है 
उसके सब ख़्वाब किसी और की तहवील में है
मेरी आंखों पे तो अब घूल जमी रहती है
(तहवील = संरक्षण)
तेरी आंखों में जो एक कतरा छुपा है, मैं हूं 
जिसने छुप छुप के तेरा दर्द सहा है मैं हूं
एक पत्थर कि जिसे आंच ना आयी तू है 
एक आईना के जो टूट चुका है मैं हूं 
तुझमें डूबी तो मुझे अपनी खबर ही कब थी 
मैंने ये दूसरे लोगों से सुना है मैं हूं 
उसने जब भी कहा कोई नहीं शायद अपना
मैंने बेसाख्ता हर बार कहा है मैं हूं 
चश्म-ए-उल्फत लड़ गई है इन दिनों 
एक अजब सी बे-कली है इन दिनों
इश्क़ भी करना है घर के काम भी
ये मुसीबत भी नई है इन दिनों 
तेरी आमद की खबर का है कमाल 
आईने सी बन रही है इन दिनों
(चश्म-ए-उल्फत = प्यार भरी आँखें
बे-कली = बेचैनी)
तेरे ख्याल से निकले तो दास्तां हो जाए
नसीब हो जो तेरा साथ जावेदा हो जाए 
तुम्हारे मिलने तलक कादिर-उल-कलाम रहे 
तुम्हारे सामने आए तो बेजुबां हो जाए 
वो दूर जाए तो ले जाए हर खुशी मेरी 
करीब आए तो सब गम यहां वहां हो जाए
(जावेदा = सनातन
कादिर-उल-कलाम = शानदार वक्ता)
बैठ गया है दिल में एक आजर सहेली क्यों? 
बस एक शख़्स ही याद आए हर बार सहेली क्यों? ये बैचेन परिंदे किसका मातम करते हैं?
शाम ढले रो पड़ते हैं अश्जार सहेली क्यों 
इश्क़ की राहत अपनी जगह और इसका सोज़ अलग 
फिर भी हिज्र के रहते हैं आसार सहेली क्यों?
(आजर = पीड़ा
अश्जार = पेड़)
वो अगर बात मानने लग जाए
उनके भी सारे गम मुझे लग जाए
अपने बारे में सोचते हुए हम 
तेरे बारे में सोचने लग जाए
हम जिसे देख ले फकत एक बार
सब के सब उसको देखने लग जाए
                                       – Foziya Rabab