Pyaas Itni Thi Hum Ro Pade Paani Sun Kar By Mukesh Alam | Shayari | Jashn-e-Rekhta

 About This Shayari :- This beautiful Shayari 'Pyaas Itni Thi Hum Ro Pade Paani Sun Kar' for Jashn-e-Rekhta is performed by Legend Shayar Mukesh Alam and also written by him which is very beautiful and delightful.

About This Shayari :- This beautiful Shayari ‘Pyaas Itni Thi Hum Ro Pade Paani Sun Kar’ for Jashn-e-Rekhta is performed by Legend Shayar Mukesh Alam and also written by him which is very beautiful and delightful.

Pyaas Itni Thi Hum Ro Pade Paani Sun Kar

रेगज़ारों में समन्दर की कहानी सुनकर 
प्यास इतनी थी कि हम रो पड़े पानी सुनकर
आशिक़ी क्या है? जरा शीशों से भी पूछना था 
क्यों चले आए हो पत्थर की जुबानी सुनकर
जिस्म पर मेरे, तेरे खास हवाले होंगे
अब जहां पर भी तेरा लम्स है छाले होंगे
आज फिर यार के कूचे में तमाशा हो जाएं
देखने वाले वहां, देखने वाले होंगे
कुदरत उसके सामने सज कर बैठ गई 
तेरी नजर जिसकी भी नजर पर बैठ गई
जंग से पहले फूल से बच्चे याद आये
नेज़े पर इक तितली आकर बैठ गई
वो मोहब्बत से भरा लहजा वो वादा क्या हुआ? 
मेरे सहरा तक जो आता था वो दरिया क्या हुआ?
मेरा दिल तो ठोकरों में आ गया लेकिन बता  
तेरे सीने में जो इक पत्थर था उसका क्या हुआ?
दुश्मनी जैसी कोई बात नहीं हो सकती
हो भी जाए तो मेरे साथ नहीं हो सकती
हम पियादों को सहूलत है शहीदों वाली,
मर तो सकते हैं मगर मात नहीं हो सकती
पूछा जलने का सबब तो ये पतंगा बोला 
खुद चलो यार! अभी बात नहीं हो सकती
अब तो अपने पास हैं केवल बिछड़े यारों की तस्वीरें
ख़ाली दस्तरख़्वान पे जैसे हों पकवानों की तस्वीरें
एक तसव्वुर ऐसा भी है हम तुम साथ में बैठे हों और
अपने बच्चे खींच रहे हों फिर हम दोनों की तस्वीरें
देख ना पाई बिनाई जो बैठकर साये रंगों के
नाबीना लोगों ने ऐसे ख्वाब सुनाएं रंगों के
बगीचे में फूल खिले तो उसकी आंखें भर आई
माली की बेटी को जैसे रिश्ते आए रंगों के
अब तो सारा आलम ही इन रंगों से शर्मिन्दा है
मज़हब वालों ने कुछ ऐसे फ़र्क़ बताए रंगों के
जितने ऊंचे हो जाओगे 
और अकेले हो जाओगे
मिट्टी हो, मिट्टी से आखिर 
कितने मैले हो जाओगे
किसी के होने चले हो? 
ऐसे कैसे हो जाओगे? 
कुछ दिन हम से दूर रहो ना
और भी प्यारे हो जाओगे 
जब आलम से प्यार करोगे 
आलम जैसे हो जाओगे 
मेरी आंखों में जब भी तेरे मंजर बैठ जाते हैं
तो इन खाली सफीदों में समंदर बैठ जाते हैं
कहा किसने ठिकाने पर क़लंदर बैठ जाते हैं
बज़ाहिर फिरते रहते हैं पर ‘अंदर’ बैठ जाते हैं
मुझे दुनिया के तानों पर कभी गुस्सा नहीं आता
नदी की तह में जाकर सारे पत्थर बैठ जाते हैं 
ऐ आवारा ख्यालों अश्क़बारी में तो रुक जाओ
परिंदे भी तो बारिश में सिमट कर बैठ जाते हैं 
हमारा और उनका रब्त है बस हाजिरी तक ही
वो रस्मन नाम लेते हैं हम उठकर बैठ जाते हैं
बड़े चर्चे हैं “आलम” आपकी ख़ानाख़राबी के
ख़ुदा का शुक्र है मक़्ते में आकर बैठ जाते हैं
उठो हमसफीरो ये मंजिल नहीं है
अभी पाशिकस्ता भी ये दिल नहीं है 
सरो से उतारो ये दिनों के पर्दे 
अभी राहवर अपना आदिल नहीं है
उठो पंडितों, काजिओ, जत्थेदारो
तुम अपनी किताबों को ही कुछ निहारो 
जरा उनकी जानेब देखो जो मरते हैं 
लूटते हैं, पीसते हैं, रोते हैं, डरते हैं
फिर भी परस्तिश तुम्हारी ही करते हैं 
अपना खुदा, ईश्वर, गॉड जो भी 
वो देखा है किसने चलो अगर हो भी 
वो बंदो के जैसा तो बेदिल नहीं है 
उठो हमसफीरो ये मंजिल नहीं है 
अभी पाशिकस्ता भी ये दिल नहीं है 
उठो अब ऐ गौतम समाधि को छोड़ो
उतर आओ ईशा शलीबो को तोड़ो 
अब आओ मोहम्मद कहो फिर से कुरान 
कि फिर से मोहब्बत को भुला है इंसा 
अब आओ ऐ नानक निगेहबान बनकर 
चले आओ अब तो हिमालय से शंकर 
कि फिर जहर को इस जमी से मिटाओ
ओ पीरों फकीरों सभी लौट आओ 
अब एक साथ सबको मोहब्बत सिखाओ 
हे माधव अभी मत ये बंसी बजाओ 
अभी ये सर्फ़ हमको हासिल नहीं है 
उठो हमसफीरो ये मंजिल नहीं है
                                  – Mukesh Alam