Tumhari Yaad Aati Hai – Manjeet Singh
Tumhari Yaad Aati Hai
वैसे तो मैं तुम्हें बहुत हद तक भुला चुका हूं।
लेकिन कभी कभी जब घर से कॉलेज जाते हुए मेट्रो को पकड़ने में लगी हुई भीड़ में किसी को किसी का हाथ कसकर पकड़ते हुए देखता हूँ
तो मुझे तुम्हारी याद आती है….!
और साथ ही याद आती है तुम्हे दूर से देखने भर से मेरे चेहरे पर आई वो मुस्कान जो तुम्हे मेरे पास आता हुआ देख मेरे दिल की धड़कन बनकर रौशनी की रफ्तार से बढ़ती ही चली जा रही थी और फिर उस भीड़ में खड़ा, तुम्हारी यादों में खोया मै मुस्कुराता हुआ ये भूल जाता हूँ कि मैं तुम्हें भुला चुका हूं
आंखें खुली रखने पर मुझे वो भीड़ तो दिखाई देती हैं पर उस रौशनी में कही तुम दिखाई नहीं देती। फिर आँखें बंद करने पर मुझे तुम तो दिखाई देती हो पर उस अंधेरे में वो भीड़ कहीं दिखाई नहीं देती उस अजीब सी कशमकश में मैं भीड़ के अजनबियों से टकराता हूँ, गिरता हूँ, सम्भलता हूँ, उठता हूँ और फिर दौड़ता हुआ मेट्रो के आखिरी डिब्बे में कोने के किसी सीट पर बैठ कर गहरी सांस लेता हुआ तुम्हारा नाम अपने ही अन्दर बहुत तेज सीकते हुए ये सोचता हूँ कि कितने खुश नसीब थे वे दो लोग,
कितने खुश नसीब थे वो दो लोग जिनके पास कोई था जिसका हाथ कसकर पकड़ कर वो उस डरावनी सी भीड़ को पार करते हुए अपने चेहरे पर एक प्यार भरी मुस्कराहट लिए मेट्रो के डब्बे पर चढ़ गए थे और कितने बदनसीब है वो लोग…! कितने बदनसीब है वो लोग जो ना जाने कितने सालों से कागज, कलम और स्याही के सहारे कविताएं लिखे जा रहे हैं सिर्फ और सिर्फ इसी उम्मीद के साथ ही कि कोई ना कोई एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब वो कोई ना कोई एक कविता ऐसी जरूर लिख देगें जिसे पढ़कर या सुनकर उनका पुराना हमसफर वापस लौट आएगा और ऐसे ही किसी भीड़ में उनका हाथ कसकर पकड़ कर बोलेगा दोस्त सुनो, आओ तुम्हें इस भीड़ से दूर लेकर अपने साथ चलता हूं….
और कितना बदनसीब हूं मैं….!
और कितना बदनसीब हूं मैं जिसे उस हजारों किस्सों और चेहरों से भरी मैट्रो में कुछ दिखाई दे रहा था तो वो थी तुम तुम्हारा चेहरा, तुम्हारी यादें, तुम्हारी पलकें, तुम्हारे होंठ, तुम्हारी आँखें, तुम्हारी जुल्फ़ें
तुम्हारी जुल्फ़ें…!
तुम्हारी जुल्फ़ें जो हो मानों रेल की पटरियों जैसी जिनके बारे में ना तो मैं ये पता लगा पाता था कि वो कहाँ से शुरू होती है और ना ही कि ये की उनका अंत कहाँ पर होता है पर मैं हमेशा के लिए उन पटरियों जैसी काली लम्बी ठंडी जुल्फों पर एक छोटे से बच्चे की तरह नंगे पांव चलते हुए खो जाना चाहता था जैसे कि दुनिया के बाकी सारे का एकदम फिजूल हो मेरे लिए।
तुम्हारी आँखें…!
तुम्हारी गहरी नीली आंखें जिनमें मैं हमेशा के लिए छोटी सी मछली की तरह डुबकियां मारते हुए तैरते रहना चाहता था जैसे वे सिर्फ आँखें नहीं बहुत गहरा कोई नीला समंदर हो और फिर उस यादों से खचाखच भरी मेट्रो में बैठा हुआ तुम्हारी यादों में खोया हुआ तुम्हारे थोड़ा और करीब जाने के लिए मैं अपने पीठ पर लदे हुए बैग में से अब तुम्हारे बाद अपनी सबसे मनपसंद चीज़ निकालता हूं जो है मेरी डायरी, मेरी डायरी जिसमें लिखी हर कविता सिर्फ और सिर्फ हमारे नाम हैं हमारी इस पहली मुलाकात के नाम हैं साथ में बितायी उस पहली रात के नाम है जो तुमने सिर्फ मुझे बतायी थी उन सारी बातों के नाम हैं जो ना चाहते हुए भी छूट गया हमारे उस साथ के नाम है और जो मेरे सिर्फ तुम्हारे लिए थे उन जज़्बात के नाम है और फिर,
और फिर उस डायरी को पलटते हुए मैं ऐसे ही किसी खाली कोरे पन्ने पर रुक जाता हूँ और हमेशा की तरह तुम्हारे लिए एक और कविता लिखनी शुरू करता हूँ जिसकी हर लाइन को मैं तब तक दोहराता हूँ जब तक मुझे वो कविता एकदम वैसे याद नहीं हो जातीं जैसे हमारे आखिरी बार मिलने पर मुझे तुम्हारे माथे पर आए हर सिकन की लकीर याद हैं।
और फिर,
और फिर अचानक से मैं ऐसे ही किसी स्टेशन पर किसी अनाउंसमेंट को सुन कर रुक जाता हूं और मुझे एकदम झटके से याद आता है
कि अरे मैं तो तुम्हें भुला चुका हूँ लेकिन कभी कभी जब घर से कॉलेज जाते हुए मेट्रो को पकड़ने में लगी हुई भीड़ में किसी को किसी का हाथ कसकर पकड़ते हुए देखता हूँ
तो मुझे तुम्हारी याद आती है
तो मुझे तुम्हारी..
तो मुझे तुम्हारी…..!
– मंजीत सिंह