माधवी त्रिपाठी की कुछ बेहतरीन कविताएं | Madhvi Tripathi Poetry

हिन्दी साहित्य जगत की नई उभरती युवा कवित्री माधवी त्रिपाठी का जन्म 11 अगस्त 1997 में प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। माधवी त्रिपाठी जी ने B.Sc (Biology) और BTC की शिक्षा प्राप्त की है और इसके अलावा अभी M.Sc 1st year राधा रमन पीजी कॉलेज से कर रही है। माधवी जी को कविताओं को पढ़ने का शौक छोटी उम्र से ही था। ये ज्यादातर महादेवी वर्मा और नीलेश मिश्रा जी की कविताओं को पढ़ना पसंद करती है।

ये सोशल मीडिया में भी ज्यादा सक्रिय रहती है। इनकी कविताएं आप फेसबुक और इंस्टाग्राम में भी पढ़ सकते है। इनकी कविताओं को बहुत ज्यादा पसंद और सांझा किया जाता है। इनकी कविताएं इतनी सहज सरल भाषा में होती है कि कोई भी एक बार में पढ़ कर आसानी से समझ सकता है। ऐसे ही कुछ बेहतरीन पंक्तियां जो माधवी जी ने लिखी है आज हम उन्हे आपके संग सांझा करेंगे।

माधवी त्रिपाठी की कुछ बेहतरीन कविताएं

माधवी त्रिपाठी की कविताएं

ये जलते दिये भी
कर रहे तेरा इंतजार ही
मेरी तरह ये भी
खत्म होने की राह पर है

चलो तुम्हे आज
फिर से तुम्हे
भूलने की कोशिश करते हैं

झुको उतना ही
जितने में आपका आत्मसम्मान
आत्महत्या ना करे

हजारो गुलाबो को
किताबो के पन्नों में छुपा के रखा है
मेरे दिल की तरह ही
वो भी मुरझाया पड़ा है
इन्तजार मे है दोनों ही
कोई आएगा एक रोज
इनका हाल ए दिल जानने के लिए

सूती साड़ी में लिपटी
मैं नारी साधारण सी
थोड़ी सी मैं भी हूँ स्वतंत्र
पर नही बन पाई स्वच्छन्द
संस्कारो को अपने इन
पायलो में बांधे हुए
चल रही मैं भी पथ पर
जिनकी छन छन से ही
गूंज रहा मेरा मन मन्दिर
सूती साड़ी में लिपटी
मैं नारी साधारण सी
थोड़ी मर्यादा को गूथे
बांध लिया हैं चोर्टी से
जिसे बिखरने नही देते
मेरे खुले विचारो वाले ये मन
सूती साड़ी में लिपटी
मैं नारी साधारण सी
थोड़ा लज्जा का काजल
लगा लिया हैं आँखो पर
जिसे बहने नही देते
मेरे सपने मेरा ये मन
सूती साड़ी में लिपटी
मैं नारी साधारण सी
थोड़ा अपनापन का भाव
बांध लिया हैं आँचल से
जिसे खुलने नही देते
मेरे हृदय में बसी कोमलता
सूती साड़ी में लिपटी
मैं नारी साधारण सी

दर्पण
हाँ
दर्पण हूँ मैं
धूप में बेहद चमकीला
अंधकार में खोया हुआ सा
दिखाता फिरता हूँ प्रतिबिम्ब
स्वयं के अस्तित्व से होकर अन्जान
किंचित पढ़ नही पाता मैं
हृदय में छुपे भावों को
प्रतिबिम्बो का साक्षी होकर भी
सत्य नही रख पाता कही भी
नाजुकता की चादर ओढ़
इतराता रहता हूँ अक्सर
कब टूट बिखर जाउंगा
इन सब से भी हूँ अन्जान
दर्पण
हाँ
दर्पण हूँ मैं

मेरी कलम जानती है
मेरे भीतर छुपे जज्बातों को
शब्द रुप दे जाती हैं वह
मेरी अनकही भावनाओं को

मेरे पास इंतजार है
तुम्हारे पास इजहार-ए-इश्क है क्या

मिल रही हूँ खुद से
जब से जुदा हो गई हूँ तुमसे

तुम्हारी परिकल्पनाओ से परे हूँ मैं
तुम्हारी परिभाषाओ से मुक्त हूँ मैं
तुम्हारी बंदिशो से आजाद हूँ मैं
हर कोई समझ सके इतनी सामान्य नही मैं
सरल होकर भी कठिन हूँ मैं
क्योंकि स्त्री हूँ मैं

भूल जाओ उन्हें
जिसने तुम्हे गमों में बांधा

आजकल आईना भी
मेरे खिलाफ हो चला है
खुशी के बीच दबे
मेरे आँसू भी दिखा देता है

अंबार लगा है खुशियों का
पर खुश नही कोई भी
दुःख
कहा से आ जाता हैं
कभी भी
ना जाने ये

मेरी ही कहानियां अब मुझे
बोझ सी लगने लगी हैं यहाँ

जलता दिया
और मेरे हृदय की दशा
शायद दोनों समान ही हैं
एक हवा का झोंका
दोनों को ही बुझा जाता हैं
और दे जाता हैं
घोर अँधेरा

व्याख्या नही बनना
मुझे सारांश ही रहने दो

काश, उसे पता होता
प्रतिक्षाओं का बोझ
कितना भारी होता है
जिसके नीचे सिमट कर
दम तोड़ देती हैं खुशियाँ

कुछ लोग अमावस की तरह
अँधेरे को जन्म देकर
खुद खो जाते हैं
अँधेरे में ही

ये फूल
कितना कुछ सहते हैं
फिर भी कुछ नही कहते हैं
कभी गले में सुशोभित होते
कभी पैरो तले रौद दिये ये जाते हैं
ये फूल कितना कुछ सहते हैं
फिर भी कुछ नही कहते हैं
कभी पवित्र पूजा में तो
कभी मृत शैय्या सेज बन जाते हैं
स्वयं परिस्थितियों में ढ़ल
उफ! तक ये नही करते हैं
ये फूल कितना कुछ सहते हैं
फिर भी कुछ नही कहते हैं
कभी वीर सपूतो पर तो
कभी कायरों पर भी
स्वयं को बिखरा पाते हैं
ये फूल कितना कुछ सहते सहते
फिर भी कुछ नही कहते हैं
कभी माली की टोकरी में
कभी सड़को पर गिर जाते हैं
ये फूल कितना कुछ सहते हैं
फिर भी कुछ नही कहते हैं

थोड़ी कमी रह जाती है
चाहे जितना तराश लूँ
खुद को

एक खत फिर से लिख रही हूँ
तुम्हारे नाम का
जिसमें शिकायतें नही हैं कही भी
बस हैं तो तुम्हारे लिए प्यार
जो पत्रों के बीच में गढ़ गये हैं
शब्द बनकर

मैंने भी सोचा था
तुम्हे भुला दूंगा
पर कम्बख्त दिल ने
धोखा दे दिया

मेरा हँसना पसंद था तुम्हे
शायद इसीलिये
मेरी हँसी साथ ले गये तुम

मन से चाहने वाले को
मन में ही चाहना पड़ता हैं

कुछ कांटे
अदृश्य होते है
जिनके चुभन की पीड़ा
हृदय विदारक सी होती हैं

कभी मुड़ के देखो
तो सही
जहाँ छोड़ा था तुमने
अब भी वही खड़े हैं हम

साहिल की रेत जैसे
हाथों से फिसल गया तू
पास रखना चाहता था तुझे
फिर भी बिछड़ गया तू

स्वयं के अस्तित्व पर
एक वार फिर से हुआ
जब अपेक्षाओं के
काले घेरे ने
जकड़ लिया मुझे
निकलना चाहता था
स्वयं की खोज में
तुलनाओं ने फिर
दिया रौंद उसे भी
चित्कार निकल रही थी भीतर ही
बाहर से सब खुशनुमा था
स्वयं को अलग करने की
हजार कोशिशे भी
उस जकड़न को कम ना कर सकी
समझा रहा था
स्वयं को ही
अपेक्षाएं ही जीवन का कटुक
सत्य हैं
फिर भी
मन बोझिल सा
समझ ना सका उसे
तुलनाओं अपेक्षाओं में घिर कर
स्वयं को ही खो दिया मैंने
युद्ध ना कर सका किसी से
हार गया मैं अपेक्षाओं से

स्थिर हो गयी हूँ मैं भी
बहुत अस्थिरता के बाद

आओ एक बार फिर
हम बच्चे बन जाते हैं
माँ के आँचल में फिर से
छुपकर बैठ हम जाते हैं
आओ एक बार फिर
हम बच्चे बन जाते
पापा के कंधो पर बैठ
मेले में घूम आते हैं
आओ एक बार फिर
बच्चे बन जाते हैं
जुगनुओ की टिमटिमाहट के पीछे
उछल कूद फिर करते हैं
आओ एक बार फिर
हम बच्चे बन जाते हैं
रात चाँदनी में चमकते
इन तारो को फिर से गिनते हैं
आओ एक बार फिर से
हम बच्चे बन जाते हैं
दादी नानी की कहानियों को
फिर उत्सुकता से सुनते हैं
पहेलियों के उत्तर भी
फिर से हम खुद ढूढ़ते हैं
आओ एक बार फिर से
हम बच्चे बन जाते हैं

गीली मिट्टी से सुन्दर घड़े की आकृति
तक का सफर हैं शिक्षक
असभ्यता से सभ्यता
तक का सफर हैं शिक्षक
निरुत्तर से उत्तर
तक का सफर हैं शिक्षक
अज्ञानता से ज्ञान भण्डार
तक का सफर हैं शिक्षक

विकल्प बनने से अच्छा हैं
प्रश्न बन जाऊं
हृदय वेदना सहने से अच्छा हैं
हृदय विहीन हो जाऊं
घृणा बनने से अच्छा हैं
प्रेम ही ना बनूं

Written by:
Madhvi Tripathi