Dar Ka Sach – Helly Shah | Storytelling | Fifty Shades Of Uth | Kahaaniya
“Dar Ka Sach” Story
थियेटर में फिल्म देखने का शौक तो मुझे बचपन से था
मुझे आज भी याद है मैं कुछ 7, 8 साल की थी
जब थियेटर में एक फिल्म लगी थी भूल भुलैया..
आप में से कई लोगों ने शायद देखी भी होगी,
मैं वो फिल्म अपने मम्मी,पापा बहन सब के साथ देखने गयी थी ।
यहां ये लोग अक्षय कुमार के पंच लाइनस पर थहाके लगाए जा रहे थे,
और वहां मेरे दिमाग में उस भुतनी के घुंघरू की छन छन छन यही सुनाई पड़ रही थी
थियेटर जाने का जितना उत्साह था
उससे कई ज्यादा घबराहट महसूस हो रही थी
फिल्म खत्म होने तक मुझे तो यकीन हो गया था कि भूत तो होते हैं फिर अक्षय कुमार dissociative identity disorder क्यो ना बुलाएं
और उसी दिन से भूतों का डर सा बैठ गया था ।
हर रात अब मैं अपने कमरे में सोने के जगह,
अपने दादा दादी के साथ सोया करती थी।
एक हाथ दादी के हाथ में और एक पैर दादा जी के पैर में,
वो क्या है ना जब तुम किसी चीज को देख नहीं सकते पहचान नहीं सकते तो उससे डरना तो जायज़ है,
मगर ऐसे वक़्त में वक्त में किसी पहचानी चीज का एहसास होना ही काफी होता है ।
तो भले ही दोनों खर्राटे लगा कर सो जाते
मगर उनके आस पास होने का एहसास ही काफी था ।
हर रात सोने से पहले मैं अपने दिमाग में योजनाएं बनाया करती
अगर वो उस खिड़की से आया तो मैं ये करूंगी,
अगर भूत ने मुझ पर पीछे से वार किया तो मैं वो करूंगी, ये प्लानिंग और प्लॉटिंग कभी खत्म नहीं होती
मगर अंत में या तो भगवान बचा लेते या थकान,
दोस्तो ये तो बचपन में जन्म लेने वाली उन हजारों भय में में से एक ऐसे भय की कहानी है
बचपन के डर जितने नादान होते हैं उतने ही सच्चे लगते हैं
कई बार ये डर बेवजह बेसबब से होते हैं
मगर कुछ डर ऐसे भी होते हैं
जिनका हमारे अनुभवों से गहरा रिश्ता होता है
कुछ डर सालों के साथ गुजर जाते हैं
मगर कई डर ऐसे भी होते हैं जिनके साथ हम समझौता कर लेते हैं उनके साथ जीना सीख लेते हैं ।
अब तो भूत भी सोने लगे थे मगर मैं फिर भी जाग रही थी
हर रात मनगढ़ंत परिस्थितियां बनाकर जैसे खुद को ही डराया करती थी
कभी-कभी ये डर एक स्कूल के सीनियर के रूप में आकर मेरे मोटापे का मजाक उड़ाता,
तो कभी बाबा के रूप में आकर परीक्षा में कम अंक लाने के लिए पिटाई लगाता
अब तो आश्वासन देने के लिए भी कोई नहीं था
लेकिन मेरी strategy काफी clear थी
अगर उस लड़की ने फिर मेरा मजाक उड़ाया तो मैं ये करूंगी,
अगर उस लड़के का कल मैसेज नहीं आया तो मैं वो करूंगी ।
जो डर ख्यालों के रूप में आते थे अब सवालों के रूप में आने लगे थे
और ये सवाल भी खुद पर यह उठते थे
अपनी ताकतों पर, इरादों पर, सपनों पर, अपने व्यक्तित्व पर और ये सिलसिला सालों तक चलता रहा।
स्कूल खत्म हूई मगर नींद नहीं
शहर बदल गया मगर ये डर नहीं,
चेहरे बदल गये मगर लोग नहीं,
अब सवाल नये थे मगर जवाब अब भी वही ।
मगर दोस्तो जैसे हर फिल्म के plot में एक twist आता है वैसे मेरी कहानी में भी एक दिन ऐसा twist आया अब इसे twist कहूं या tubelight,
मगर ऐसा लग रहा था कि डर के इस घने अंधेरे में मीलो दूर एक रोशनी नजर आ रही हो ।
शायद बुरे वक्त की एक यही अच्छी बात है
मिसाल कमाल की दे जाता है ।
मैंने अपने सबसे बड़े डर को पहचान लिया था
वो डर जो नींद न आने पर बुरे सपने बनकर आता और ना आने पर कड़वा सच ।
मेरा सबसे बड़ा डर था एक आईना,
और उस आईने में दिखने वाली मेरी परछाई
जिसने हमेशा मुझे अपनी गलतियां, खामियां और कमी आई ही दिखाई
जो हमेशा मुझे खुद पर भरोसा करने से रोकता रहा
और मेरे रास्ते में रुकावट बनता रहा
दोस्तो हम हमेशा इस डर में जीते है कि
क्या लोग हमें हम जैसे है वैसे अपनाएंगे,
मगर असली सवाल तो ये है की क्या हम अपने आप को अपना पाएंगे,
बचपन में कई चीजों पर आंखें बंद करके भरोसा कर लेते हैं
जैसे भूत, प्रेत, परियां खुद पर भरोसा करना भूल जाते हैं
शायद इसीलिए इस भूलभुलयीया में अपने आप से जुड़े इस डर को पहचानना बहुत जरूरी है
दूसरों को, दुनिया को, खुद पर भरोसा दिलाने से पहले अपने आप पर यकीन करना बहुत जरूरी है ।
दोस्तो इस कहानी का
मैंने क्लाइमैक्स अभी तक लिखा नहीं
क्योंकि जब तक सांसे चल रही है तब तो यही कोशिश रहेगी कि
मैं अपनी काबिलियत पर सवाल उठाना छोड़ दूं,
और कोई और मुझे अपनाए या ना अपनाए
मैं खुद को अपना सकूं
तो जाने से पहले बस इतना ही कहूंगी कि
तू खड़ा है तेरे आगे
मुड़कर देख तो कोई नहीं,
डर से डर कर क्यों है भागे,
तेरा गलत भी तू
तू ही सब सही।
–Helly Shah