Ek Adhoori Aas by Swati Pathak | The Social House Poetry

Ek Adhoori Aas | Swati Pathak

 ' Ek Adhoori Aas' is very beautiful poem written by Swati Pathak and has also performed in the stage of 'The Social House'.

Ek Adhoori Aas

ये गरीबी जीने नहीं देती 
रंज-ओ-गम बेशुमार देती है  
चेहरा उतरे तो एक अलग बात है 
गरीबी भूख, इज्जत उतार देती है 
खामोशियां रख लो मेरी गिरवी 
मुझे अल्फाज लौटा दो 
जात रख लो अपने ही पास 
मुझे इंसान लौटा दो।
आजादी..
इतनी दूर तक ले तो आए आजादी 
फिर क्यों शर्मिंदा हो तुम 
क्या ये कम है कि जिंदा हो तुम 
शायद आज तुमको याद आया 
कि पीछे क्या भूल आए तुम 
हिंदुस्तान तो खींच लाए वहां से 
पर हिंदी भुल आए तुम 
माथे की चमक तो ले आए वापस 
पर बिंदी भूल आए तुम
इतनी दूर तक ले तो आए आजादी 
फिर क्यों शर्मिंदा हो तुम
फिर क्यों.. फिर क्यों शर्मिंदा हो तुम! 
सरहदों में बांटने के लिए रस्सी ले आए 
वो फांसी वहीं भूल आए तुम 
भरी सभा के लिए द्रौपदी खींच लाए 
वो मर्दानी वो झांसी भी भुल आए तुम 
इतनी दूर तक ले तो आए आजादी 
फिर क्यों शर्मिंदा हो तुम 
फिर क्यों.. फिर क्यों शर्मिंदा हो तुम! 
दामिनी और आसिफा बानो तक का सफर तय कर तो लिया 
वो राधा वो मीरा वही भुल आए तुम 
करोड़ों की भीड़ में भेड़िए ले आए 
मगर इंसान वही भुल आए तुम 
इतनी दूर तक ले तो आए आजादी 
फिर क्यों शर्मिंदा हो तुम 
क्या यह कम है कि जिंदा हो तुम 
एक अधूरी आस.. 
जिंदगी को जीने की आस रह गई 
अपनी खुशी से मिलने की आंखों में प्यास रह गई
हम तरसे बहुत उस घर को देखने को 
जिस घर में पड़ी हमारी लाश रह गई
सूनी कलाइयों में बांधते प्यार बहनों का 
मेरी तड़पती बाहों की ये आस रह गई 
भीगी पलकों से करते बिदाई अपनी गुड़िया की 
ख्वाबों की अधूरी मुराद रह गई 
जिंदगी को जीने की आस रह गई।
 
देख कर चांद को खोलती थी व्रत  
उम्र भर के लिए मेरी वो जान उदास रह गई
करना था इस उम्र में बोझ हल्का जिसका 
उसके कंधों पर मेरी अस्थियों की सौगात रह गई
मैं लाऊं कहां से वो शब्द और बयां करने को 
उस मां के लिए जिसकी आंखों में आंसुओं की बरसात रह गई 
जिंदगी को जीने की बस एक आस रह गई 
एक अधुरी आस रह गई।

                                                   – स्वाति पाठक