अड़ियल साँस | केदारनाथ सिंह
‘अकाल में सारस‘ नामक कविता-संग्रह जिसमें यह कविता ‘अड़ियल सांस‘ भी सम्मिलित है। केदार जी की अधिकतम कविताओं में आस पास की चीजों का जिक्र होता है। जैसे कि इस कविता में काई, घास, पत्थर जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है। केदार जी कविताओं का वर्णन नहीं चित्रण किया करते थे। कविता ‘अड़ियल सांस‘ में केदार जी ने पहली बार जिन्दगी से लड़ती हुई सांसों को इतने करीब से देखा था की किस प्रकार सांसें लम्बी और ऊपर-नीचे हो रही है और किस प्रकार जीवन से लड़ती हुई सांसें सन्नाटों में गुज उठती हैं। इनकी ये कविता कुछ इस तरह है……
अड़ियल साँस
पृथ्वी बुखार में जल रही थी
और इस महान पृथ्वी के
एक छोटे-से सिरे पर
एक छोटी-सी कोठरी में
लेटी थी वह
और उसकी साँस
अब भी चल रही थी
और साँस जब तक चलती है
झूठ
सच
पृथ्वी
तारे – सब चलते रहते हैं
डाक्टर वापस जा चुका था
और हालाँकि वह वापस जा चुका था
पर अभी सब को उम्मीद थी
कि कहीं कुछ है
जो बचा रह गया है नष्ट होने से
जो बचा रह जाता है
लोग उसी को कहते हैं जीवन
कई बार उसी को
काई
घास
या पत्थर भी कह देते हैं लोग
लोग जो भी कहते हैं
उसमें कुछ न कुछ जीवन
हमेशा होता है
तो यह वही चीज थी
यानी कि जीवन
जिसे तड़पता हुआ छोड़कर
चला गया था डाक्टर
और वह अब भी थी
और साँस ले रही थी उसी तरह
उसकी हर साँस
हथौड़े की तरह गिर रही थी
सारे सन्नाटे पर
ठक-ठक बज रहा था सन्नाटा
जिससे हिल उठता था दिया
जो रखा था उसके सिरहाने
किसी ने उसकी देह छुई
कहा – ‘अभी गर्म है’
लेकिन असल में देह याकि दिया
कहाँ से आ रही थी जीने की आँच
यह जाँचने का कोई उपाय नहीं था
क्योंकि डाक्टर जा चुका था
और अब खाली चारपाई पर
सिर्फ एक लंबी
और अकेली साँस थी
जो उठ रही थी
गिर रही थी
गिर रही थी
उठ रही थी…
इस तरह अड़ियल साँस को
मैंने पहली बार देखा
मृत्यु से खेलते
और पंजा लड़ाते हुए
तुच्छ
असह्य
गरिमामय साँस को
मैंने पहली बार देखा
इतने पास से।
– केदारनाथ सिंह
Prithvi bukhaar mein jal rahi thi
Aur is mahaan prithvi ke
Ek chhote-se sire par
Ek chhoti-si kothri mein
Leti thi wah
Aur uski saans
Ab bhi chal rahi thi
Aur saans jab tak chalti hai
Jhuth
Sach
Prithvi
Taare – sab chalte rahte hain
Doctor wapas ja chuka tha
Aur halanki wah wapas ja chuka tha
Par abhi sab ko ummid thi
Ki kahin kuch hai
Jo bacha rah gaya hai nasht hone se
Jo bacha rah jata hai
Log usi ko kahte hain jivan
Kayi baar usi ko
Kaai
Ghaas
Yaa patthar bhi kah dete hain log
Log jo bhi kahte hain
Usmein kuch na kuch jeevan
Hamesha hota hai
To yah wahi chiz thi
Yaani ki jeevan
Jise tadapta hua chhodkar
Chala gaya tha doctor
Aur vah ab bhi thi
Aur saans le rahi thi usi tarah
Uski har saans
Hathaude ki tarah gir rahi thi
Saare sannaate par
Thak-thak baj raha tha sannaata
Jisse hil uthta tha diya
jo rakha tha uske sirhane
Kisi ne uski deh chhui
Kaha – ‘abhi garm hai’
Lekin asal mein deh yaaki diya
Kahan se aa rahi thi jeene ki aanch
Yah janchne ka koi upaay nahin tha
Kyonki doctor ja chuka tha
Aur ab khaali charpaai par
Sirf ek lambi
Aur akeli saans thi
Jo uth rahi thi
Gir rahi thi
Gir rahi thi
Uth rahi thi…
Is tarah adiyal saans ko
Maine pahli baar dekha
Mrityu se khelte
Aur panja ladate hua
Tuchchh
Asahaye
Garimaamay saans ko
Maine pahli baar dekha
Itne paas se.
– Kedarnath Singh