छोटे शहर की एक दोपहर | केदारनाथ सिंह
छोटे शहर की एक दोपहर’ कविता केदारनाथ जी द्वारा लिखी गई है। यह एक हिन्दी कविता है जिसमें छोटे शहर में जब चिलचिलाती धूप का सामना उस शहर के पशु-पक्षी और वहां के लोग करते हैं तो वहां किस तरह का माहौल होता है इस कविता में केदारनाथ जी ने बखुबी वर्णन किया है…!
छोटे शहर की एक दोपहर
हजारों घर, हजारों चेहरों-भरा सुनसान –
बोलता है, बोलती है जिस तरह चट्टान
सलाखों से छन रही है दोपहर की धूप
धूप में रखा हुआ है एक काला सूप
तमतमाए हुए चेहरे, खुले खाली हाथ
देख लो वे जा रहे हैं उठे जर्जर माथ
शब्द सारे धूल हैं, व्याकरण सारे ढोंग
किस कदर खामोश हैं चलते हुए वे लोग
पियाली टूटी पड़ी है, गिर पड़ी है चाय
साइकिल की छाँह में सिमटी खड़ी है गाय
पूछता है एक चेहरा दूसरे से मौन
बचा हो साबूत – ऐसा कहाँ है वह – कौन?
सिर्फ कौआ एक मँडराता हुआ-सा व्यर्थ
समूचे माहौल को कुछ दे रहा है अर्थ।
– केदारनाथ सिंह
Hazaron ghar, hazaron chehron-bhara sunsaan –
Bolta hai, bolti hai jis tarah chattaan
Salakhon se chhan rahi hai dopahar ki dhoop
Dhup mein rakha hua hai ek kala soop
Tamtamaye hua chehre, khule khaali haath
Dekh lo ve ja rahe hain uthe jarjar maath
Shabad saare dhul hain, vyakaran saare dhong
Kis kadar khaamosh hain chalte hua ve log
Piyaali tuti padi hai, gir padi hai chaay
Saayikil ki chhanh mein simti khadi hai gaay
Puchhta hai ek chehra dusre se maun
Bacha ho saabut – aisa kahan hai wah – kaun?
Sirf kaua ek mandrata hua-sa vyarth
Samuche mahaul ko kuch de raha hai arth.
– Kedarnath Singh
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