Hisaab-e-Mohabbat Poetry Lyrics by Shalvi Singh | Love Poetry | The Social House Poetry

Hisaab-e-Mohabbat | Shalvi Singh

'Hisaab-e-Mohabbat' Poetry Lyrics has written and performed by Shalvi Singh herself on The Social House's Plateform.

  शब्दार्थ  
तहरीर – लिखावट, लिखाई, लिखी हुई बात।
नफ़ी – मना करना, इनकार करना, घटाना, मना करना।
मलामत-ए-जफ़ा – अत्याचार की निंदा।

Hisaab-e-Mohabbat

सुनो आज कुछ हिसाब कर लेते हैं
तुम कहो तो लफ़्ज़ों की तहरीर कर लेते है
चलो आज हिसाब-ए-मोहब्बत कर लेतें है
चलो आज हिसाब-ए-मोहब्बत कर लेतें है
चलो वादा करते हैं कि अब तेरा ज़िक्र नहीं करेंगे अफ़साने में अपने
मिटा देंगे मौजूदगी भी तेरी तराने से अपने
चलो आज आजमाई से वफा कर लेते है
वो तेरे माथे पर चुंबनों की गलतियाँ नफ़ी कर लेते हैं
और चल आज तुझ को खुद ही से आजाद कर लेते है
चलो आज हिसाब-ए-मोहब्बत कर लेतें है
सुनो वो सन्दूक जो भरा है खातों से मेरे छुपा देना
कहीं वो नया शख्स
तुम्हें गलत न समझ बैठे 
अब जा भी रही हो तुम छोड़कर मुझको
तो ये भी देखना की कोई हिसाब ना छूटें
अच्छा सुनो तेरे जाने से पहले मलामत-ए-जफ़ा कर लेते है
चलो आज हिसाब-ए-मोहब्बत कर लेतें है
अच्छा बस मेरे आखिरी कुछ सवाल रहते है
मेरे कुछ आखरी सवाल रहते है
क्या उसके होंठ भी नींद में तेरा ही नाम कहते हैं 
और क्या आंसु तेरी आंख के उसको भी रुला देते हैं
खैर चलो अब बंटवारा कर लेते हैं
जो कुछ हमारा था अब तेरा और मेरा कर लेते है
चलो आज हिसाब-ए-मोहब्बत कर लेतें है
उस ग़ालिब का ना शेर सही
बस तेरी कहानी बन जाऊंगा
माथे का टीका न बना कभी तो
तेरी आँख का काजल बन जाऊंगा
अस्तित्व मिटा दूंगा मैं अपना
तेरे बस एक दर्द की खातिर
आंसु के तेरे गिरने से पहले
मैं बन के स्याहीं बह जाऊंगा
उस ग़ालिब का ना शेर सही
बस तेरी कहानी बन जाऊंगा ।
                                                     – शाल्वी सिंह