Wo Ishwar Ki Beti, Main Allah Ka Beta
महजबीं दीवारों में दब के मैं टूटा था
रिवाजों के साओ में घुट घुटके जीता था
मेरी बस इतनी सी गलती थी,
जो लगा किस्मत में टोटा था
वो ईश्वर की बेटी थी,
मैं अल्लाह का बेटा था।
वो प्यार कहाँ सच्चा जो,
दूजे रिश्तों को फना कर दे
वो मिलना भी क्या मिलना जो,
माँ बाप के दिल से जुदा कर दे।
अपनों की खुशी की खातिर
इस दिल को आग में झोंका था
उसने मां की कसम रख ली
मुझे अपनी कसम से रोका था
यार मोहब्बत बिन कहाँ जीने का इरादा था
लाचार फकीरों सा, खाना पीना त्यागा था
दुनिया से छिपाने का अच्छा सा बहाना था
वो नवरात्र के व्रत रखती
मेरा रमजान का रोजा था
वो खुद से लड़ती थी
मुझे दुनिया से लड़ना था
वो गुमसुम सी गुड़िया थी
मैं टूटा सा खिलौना था
ख़ामोश वो अल्लाह भी जाने क्या तकता था
वो तकिए भिगोती थी
मैं गलियों में भटकता था।
कभी टूटा दिल, कभी टूटा मैं,
कभी अपनों का भरोसा टूट गया
इस दुनिया में रफ्तार बहुत है,
मै तन्हा-अकेला छूट गया
ये कोई मर्ज जैसा है या तेरी यादों का है साया
जिसे भी प्यार से देखुं मुझे तुझसा नजर आया।
अब तुझे महसूस करता हूँ तू यही कही है
मेरी इबादत में कमी है जो तू दिखती नहीं है
सोचता हूँ सम्भल जाऊं ज़रा जी लूं खुद के लिए
ये सांसें वफादार है तेरी, मेरी सुनती नहीं है
यहाँ तरीके तमाम हैं दिल को रिझाने के मगर
ये प्यास रूहानी है, कहीं बुझती नहीं है।
आँखों में जो नमी है वो बरसात में नहीं
तेरे सिवा कोई और मेरे जज्बात में नहीं
अब कोशीशें तमाम की तुझे अपना बना लूं
मगर तू वो लकीर है जो मेरे हाथ में नहीं।
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं
एक दोस्त है कच्चा पक्का सा,
एक झूठ है आधा सच्चा सा
जज़्बात ढके एक पर्दा सा,
बस एक बहाना अच्छा सा
जीवन का ऐसा साथी है,
जो दूर नहीं और पास नहीं
कोई तुमसे पूछे कौन हूँ मैं ,
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं
जब डरकर बिजली की झंकार से
तू तकिए से लिपटकर सोएगी
जब उड़कर किसी झरोखे से
कुछ बूंदें तुझे भिगोएगी
तब तुमसे मिलने आऊंगा
वो मेरे आंसु होंगे, बरसात नहीं
कोई तुमसे पूछे कौन हूं मैं
तुम कह देना कोई ख़ास नहीं…!
– विनीत सोलंकी