यह अग्निकिरीटी मस्तक | केदारनाथ सिंह
‘यहां से देखो‘ नामक कविता-संग्रह में यह कविता ‘यह अग्निकिरीटी मस्तक‘ भी सम्मिलित हैं।इस कविता में एक चुप्पी या सन्नाटा केदार जी को बेचैन करता है की आखिर लोग मौन क्यों हैं? जिन्हें बोलना आता है जो बोल सकते हैं, लोकतंत्र के लिए बोलना जरूरी हैं अपने अधिकारों के लिए बोलना जरूरी है फिर भी लोग बोल क्यों नहीं रहे हैं? एक समय था जब लोग अपने अधिकारों के लिए लड़ते थे। समाज और देश के लिए आवाज बुलंद करते थे लेकिन आज जब पीछे मुड़ के देखते हैं तो अपने टुटे बिखरे सपने और सन्नाटे के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता।
यह अग्निकिरीटी मस्तक
सब चेहरों पर सन्नाटा
हर दिल में गड़ता काँटा
हर घर में है गीला आटा
वह क्यों होता है ?
जीने की जो कोशिश है
जीने में यह जो विष है
साँसों में भरी कशिश है
इसका क्या करिए ?
कुछ लोग खेत बोते हैं
कुछ चट्टानें ढोते हैं
कुछ लोग सिर्फ होते हैं
इसका क्या मतलब ?
मेरा पथराया कंधा
जो है सदियों से अंधा
जो खोज चुका हर धंधा
क्यों चुप रहता है ?
यह अग्निकिरीटी मस्तक
जो है मेरे कंधों पर
यह जिंदा भारी पत्थर
इसका क्या होगा ?
– केदारनाथ सिंह
Sab chehron par sannaata
Har dil mein gadta kaanta
Har ghar mein hai gila aata
Wah kyon hota hai ?
Jeene ki jo koshish hai
Jeene mein yah jo vish hai
Saanson mein bhari kashish hai
Iska kya kariye ?
Kuch log khet bote hain
Kuch chattaanen dhote hain
Kuch log sirf hote hain
Iska kya matalab ?
Mera pathraya kandha
Jo hai sadiyon se andha
Jo khoj chuka har dhandha
Kyon chup rahta hai ?
Yah agnikiriti mastak
Jo hai mere kandhon par
Yah zinda bhaari patthar
Iska kya hoga ?
– Kedarnath Singh