‘CYCLE’ Storytelling
एक सुबह बाबा आए मुझे उठा कर बोले ‘याहया’ चल आज मैं तुम्हें साइकिल चलाना सिखाता हूं
यार अब तक आफताब ने भी अपनी आंखें खोली नहीं थी
और मैं खुद रात को कार्टून देख कर देरी से सोया था
तो मैंने वही कहा जो हर बच्चा बोलता,
“ठीक है बाबा”
मैं जैसे ही बाहर गया वहां पर एक नई चमचमाती हुई साइकिल मेरा इंतजार कर रही थी
उसको देख कर मेरा नादान सा मन उछल कूद करने लगा
पर जैसे ही मेरी नजर पिछले वाले पहिए के training wheels की गैरमौजूदगी पर गई
मेरा मन फिर बैठ गया।
जहेन में एक डर सा उठ गया था,
पर जिसे बाबा ने भाप लिया था इसलिए उन्होंने कहा “बेटा मैं हूं ना”!
तो उस छोटी सी साइकिल की छोटी सी सीट पर
मैंने अपनी छोटी सी तशरीफ़ जमाई
पेंडल पर जोर डाला, पहीए थोड़ा घूमे और साइकिल डगमगाते हुए आगे बढ़ी
जिससे मैं खुश था पर ना जाने क्यों बाबा पीछे से कहे जा रहे थे,
“हेन्डल सीधा रखो!”
“अरे! ये साइकिल दाएं जा रही है!”
“पैन्डल करना मत छोड़ो !!”
“अरे गिर जाओगें…!!!!”
पहले दिन इतनी?… इतनी कसरत कौन कराता है??
पर बाबा ये कसरत मुझे रोज करा रहे थे
फिर एक दिन अचानक मेरी साइकिल ने डगमगाना छोड़ दिया
खुशी के ना मारे मैं बाबा को पीछे मुड़ के ये कहना चाहता था
कि देखो बाबा मैं साइकिल करना सीख गया
पर बाबा बहुत दुर खड़े थे
उन्हें इतना दूर खड़ा देख मैं डरा
और मेरी डर की वजह से साइकिल फिर डगमगाई और पहली बार गिरी
मेरी तशरीफ़ जो सीट पर जमी हुई थी वो जमीन पर आ गिरी थी
बाबा दौड़े-दौड़े पीछे से आए, थोड़ा मुस्कुराएं
मुझे उठाकर घर ले गए पर ना जाने क्यों उस दिन से गिरने का एक अजीब सिलसिला शुरू हो गया था
क्योंकि जहां मेरी साइकिल ने डगमगाना छोड़ा
मैं और जब तक मेरी नजर फिर रस्ते पर पड़ती
मैं खुद रस्ते पर पड़ा होता
तो एक दिन मैंने सोचा कि आज तो इस डर की ऐसी की तैसी करूंगा
तो मैंने अपनी साइकिल को भगाना शुरू किया
“इतना तेज” बाबा पीछे से चिल्ला रहे थें
“बेटा तुम बहुत तेज जा रहे हो….!”
(थोड़ा धीमा चलाओ!!)…. (थोड़ा धीमा चलाओ…!!)
अरे!! वो? आगे देखों गढ्ढा है…!
अरे! तुम किसी से टकरा जाओगें..!
उनकी सारी नसीहत मानो मेरी रफ्तार में कहीं गुम सी हो गई थी
ये जो हवा चल भी नहीं रही थी वो अचानक मुझे चूमना शुरू कर चुकी थी
और इस रफ्तार से बस मुझे मोहब्बत हो ही रही थी कि अचानक मेरा पैर फिसला पेंडल से,
साइकिल फिसली मैं घसीटते हुए जमीन पर गिरा
और पहली बार आंखों से आंसू और घुटने से लहू बहा
पर असली जख्म़ मेरे अहम को लगा था
बाबा दौड़े-दौड़े आए
आज बिना मुस्कुराए मुझे उठा कर घर ले गए
और बस इतना कहा कि कल साइकिल मत चलाना
पर अब साइकिल मुझे चलानी थी क्योंकि कल तक मैं गिर रहा था अपने डर की वजह से,
आज जो मैं गिरा था वो अपनी बेवकूफी की वजह से
एक चीज तो मैं जानता था कि
‘डर से तो फिर भी लड़ा जा सकता है
पर बेवकूफी!.. बेवकूफी को ना सुधारो तो उसको दोहराने की आदत पड़ जाती है।’
तो अगली सुबह मैं उठा सूरज से पहले
साइकिल को स्टैंड से हटाया और मीलों मील तक चला ले गया
एक मोड़ से घुमाकर, फिर घर लाया बिना गिरे
फिर सुबह बाबा को मैंने उठाया हंसते-हंसते पूरा
किस्सा सुनाया
और बस इतना कहा कि बाबा देखो मैं साइकिल चलाना आखिर में सीख गया
बाबा मुस्कुराएं और जवाब में कहा कि
“बेटा तू बस साइकिल चलाना नहीं आज तू जिंदगी में चलना भी सीख गया”।
उन्होंने मुझे बताया कि कैसे हैंडल हमारा ध्यान है, पेडल हमारी मेहनत!
ये चलती हुई साइकिल हमारी कामयाबी
जो चल रही है इस रास्ते पर जिसे कहते हैं जिंदगी
उन्होंने मुझे समझाया कि घमंड की रफ्तार में और इंसानी रिश्तों की गढ्ढो में मैं बार-बार गिरूंगा
और मुझे उठना है !
साइकिल को फिर से खड़ा करना है!
और चलाते जाना है तब तक जब तक मौत की खाई ना आ जाए।