Yun Hi Takra Gaya Koi
इबादतों की तरह मैं ये काम करता हूं
मेरा उसूल है,
पहले सलाम करता हूं।
देखी गई ना मुझसे अंधेरों की सरकशी
फिर आफताब बनकर निकलना पड़ा मुझे
मुझे गुमान है चाहा है बहुत जमाने वालों ने मुझे
मैं अजीज तो हूं सबका मगर जरूरतों की तरह
गुमसुम सी ये रात कब गुजरी कुछ खबर नहीं बस खोया था किसी के खयालों में
हजारों गम सहे ना निकले आंख से आंसू
हम अहल-ए-ज़र्फ़ हैं,
पीते हैं छलकाए नहीं करते
उनकी जुल्फें थी, लबों रुखसार थे और हाथ मेरे
कट गए रात के लम्हें,
यूं ही शरारत करते करते
मैं खुदा की नजरों में भी गुनहगार होता हूं
जब सजदों में ही वो मुझे नजर आ जाती है
यूं ज़िंदगी की राह में टकरा गया कोई
एक रोशनी अधर में बिखरा गया कोई
वो हादसा वो पहली मुलाकात क्या कहूं
कितनी अजब थी सूरत-ए-हालात क्या कहूं
वो कहर, वो गजब, वो जफा मुझको याद आता है
वो उसकी बेरुखी की अदा मुझको याद आती है
मिटता नहीं है जहन से यूं छा गया कोई
यू जिंदगी की राह में टकरा गया कोई
पहले वो मुझे देखकर बरहन से हो गए
फिर अपने हसीन ख्यालों से खो गए
बेचारगी पर उन्हें मेरी रहम आ गया
शायद मेरे तड़पने का अंदाज भा गया
मिटता नहीं है जहन से यूं छा गया कोई
सांसो से भी करीब मेरे आ गया कोई
यूं ज़िंदगी की राह में टकरा गया कोई
ना कोई सुबह, ना कोई शाम देते हो
दिल धड़कने को मोहब्बत का नाम देते हो
रोज चले आते हो ख्वाबों में मेरे
इन आंखों को ना एक पल तुम आराम देते हो
तुम ना पूछोगे कभी हाल-ए-दिल मेरा
और गैरों को हर रोज सलाम देते हो
हमने याद रखा इसलिए मुजरिम ठहरे
शायद भूल जाने पर तुम इनाम देते हो
अल्लामा इक़बाल साहब की कुछ लाइन:
तस्कीन न हो जिस से वो राज़ बदल डालो,
जो राज़ न रख पाए हमराज़ बदल डालो,
तुम ने भी सुनी होगी बड़ी आम कहावत है,
अंजाम का जो हो खतरा अघाज़ बदल डालो,
दुश्मन के इरादों को है ज़ाहिर अगर करना,
तुम खेल वही खेलो अंदाज़ बदल डालो,
ए दोस्त करो हिम्मत कुछ दूर सवेरा है,
अगर चाहते हो मंजिल तू परवाज़ बदल डालो।
– Faizan Khan