Hawa Mubarak!
तरक्की कर रहे देशों में रोज चलती है कुल्हाड़ियां
कटते पेड़ की छाती से निकलता अगर खून तो
उनके कटने पर दुःख करना आसान होता
पर खून के अलावा कहां है हमारे पास मापदंड?
चोट का अंदाजा लगाने के लिए।
हमने पहन लिए हैं बिना नंबर वाले गोल चश्में
जिनकी गोलाई जितना हमारी उदारता का घेरा
और ब्रह्मांड के वजन और आकार जितना हमारा स्वार्थ
एक रोज जंगलों के कटते झूंड से एक बच्चा किसी तरह तरक्की की चल रही कुल्हाड़ी की नजरों से बच गया
वो चुपचाप सुलगता बड़ा होता रहा
लगातार इस डर के साथ की जल्दी उसके बढ़ते कंधे, चौड़ी होती छाती किसी की आंख में चूभना शुरू हो जाएंगे
उसने सुना है लोगों को बात करते कि आधुनिक भारत के लोगों के लिए चलाई जा रही है मेट्रो।
जिसकी सफाई-धुलाई के लिए लगेगी जगह
उसे यकीन है कि ये काम उसके
कब्र के अलावा कहीं नहीं हो सकता
वो चुपचाप उदास बैठा गिनता है दिन
सोचता है दिन भर कि कटकर मरना अच्छा कि घुटकर
क्योंकि उसके कंधे और कोहनीयां जिसपर बैठते हैं रोज पंछी
उसके पांव जिनमें रोज कोंपले और पत्तियां देखती है अपनी पहली धूप
पाट दिए जाएंगे कंक्रीट के साथ वैसे भी पक्की सड़क ही तो है हमारी विकास का रास्ता
सड़क जिसपे दौड़ते गोला बारूद से भरे टैंक खड़े हो जाते हैं पड़ोसी मुल्कों के तरफ
मुझपे दौड़ती हैं गाडियां
किसान से लेकर 2 रुपए में प्याज बेचने शहर में २० का
जिसमें दौड़ती हैं नेताओं के बुलेटप्रूफ गाड़ियां
जिनके अन्दर ना तो बुलेट जा सकती है ना ही रस्सी से लटकते किसान के मुंह से निकली आखरी कराह
विकास जरूरी है
विकास जरूरी है पर किस कीमत पर
हमें इससे कोई वास्ता नहीं है
क्योंकि बढ़ते तापमान से बचने के लिए हमने बना लिए हैं AC
बढ़ती ठंड से बचने के लिए हमने बना ली है रजाईयां
हमारे लिए दुनिया, देश, पृथ्वी हमारे घर के लोग और बच्चे हैं
ये जब सो जाते हैं रात को रजाई ओढ़ के,
हमें लगता है हर कोई सो रहा है चैन की नींद।
लालच फैलती जा रही है महामारी की तरह
पर हमें यकीन है कि धरती का अंत किसी उल्का पिंड से होगा
हमने निभा लिए हैं सारी जिम्मेदारियां
मिटा दिए सारे रोग, लड़ाई, झगड़े
बस कमाने है बहुत सारे पैसे
और कुच कर जाना एक साथ मंगल ग्रह की ओर
कहते हैं ऊंचाई से गिर रहे आदमी की मौत
जमीन पर पहुंचने से पहले ही हो जाती है
हम सबको अपनी-अपनी हवा मुबारक
और हवा में तैर रही अपनी-अपनी लाशें।
– Ramneek Singh