This beautiful poem ‘Maa Tum Sabr Bohot Karti Ho‘ has been written by Taranjit Kaur and has performed so beautifully in the platform of ‘Spill Poetry‘.
‘Maa Tum Sabr Bohot Karti Ho’
मां जब मैं छोटी सी थी
तो सब कहते कि मैं तुम जैसी दिखती हूं
तुम्हारे ऑफिस जाने पे trunk से तुम्हारी नीली साड़ी निकाल के
खुद को आईने में निहारती रहती और
सोचती हां मैं तुम जैसी ही दिखती हूं
तुम रोज सुबह उठके 5:00 बजे
घर के सब काम निपटाती
फिर ऑफिस जाने से पहले हमारा खाना बना
और भाग भाग के हमें जगाती
मैं सोचती मां इतना क्यों चिल्लाती है?
इतना क्या काम है सुबह सुबह जो भाग भागकर निपटाती है
आज समझ आया है तो सोचती हूं
काश उस वक्त मै तुम्हारा हाथ बटा पाती
सब कहते मेरा और तुम्हारा स्वभाव एक है
और पापा और दीदी का, दोनों बड़बोले हैं
और दोनों का तेवर है
लड़ते भी है, झगड़ते भी
तुम चुपचाप देख कर मुस्कुराती हो
खुद ही सुलझा लेंगे आराम से बैठ जाती
कितना भी तनाव हो घर में
तुम शांत दरिया सी बहती रहती हो
मां तुम सब्र बहुत करती हो
एक दिन तुम्हारी साड़ी के trunk में कुछ ढूंढ रही थी मैं
तो तुम्हारी साड़ी के नीचे एक मेडल और एक ट्रॉफी मिली
जब मैंने पूछा ये सब किसके हैं?
तो नानी बोली कि तुम गजब की athlete थी
ये जो trunk भरे हैं ना साड़ी के
उन सब में मेडल्स और ट्रॉफ़ीस थे
जब पूछा मैंने सब कहां गए?
तो तुमने कहा सब फेंक दिए
घर में जगह नहीं थी रखने की
तो क्या करते हैं सब बेच दिए
क्यों तुमने ज़िद नहीं की रखने की?
क्यों ऐसे ही सब जाने दिया?
मां इतनी क्यों सुनती हो सबकी
क्यों इतना सब्र करती हो
पापा के यहां कला का खजाना था
कोई लेखक कोई शायर, तो कोई चित्रकार था
जब मैं और दीदी नाटक करने लगे
और रात रात को घर आते
तुम परेशान भी होती पर हमारे आने तक ना सो पाती
सब कहते क्या करती है ये लड़कियां जो इतनी रात को आती है?
तब तुम फक्र से कहती ये नाटक करती है, ये कलाकार है
ये आसान नहीं था ना, तुम्हारा ये सब समझ पाना
पर तुम कैसे हर बार ढाल बन के हमें बचाती
कोई कुछ भी कह दे तुम शांत रहकर ही समझाती हो
मां तुम सब्र बहुत करती हो
रात को थक के तुम हर बार सोफे पे लेट जाती
कहती मुझे यहां नींद अच्छी आती है
मैं तुम्हें देखके हंसती कि मां भी ना…
आज जब मैं हर बार सोफे पे सिकुड़ जाती हूं
तो शायद समझी हूं कि तुम वहां क्यों सोती थी
कुछ तो है जो मैं तुम जैसी हूं
तुम भी सब्र बहुत करती थी
मैं भी सब्र बहुत करती हूं
देखो ना मां इतिहास खुद को दोहराता है
मैं भी नाटक छोड़ के घर चलाने लगी
सब किताबें और स्क्रिप्ट रख दी अलमारी में
बस सुबह-शाम खाना बनाने लगी
सोचा सपने तो मेरे ही हैं इनका क्या है फिर जी लूंगी
पहले सबको खुश कर लूं
मेरा क्या मैं फिर हंस लूंगी
यह अहसास नहीं था
कि दब रहे थे सपने
अगर उठती नहीं मैं तो मर ही जाते
अब उठी हूं तो थोड़ा तो जीने दो
बहुत चुप रही हूं… थोड़ा तो कहने दो
मां तुम मेरी प्रेरणा हो!
मैं तुम जैसी हूं
पर अब और तुमसा नहीं बनना
मुझे बोलने दो मां अब और सब्र नहीं करना।
– Taranjit Kaur