Kaagaz Poem
फूल कांटा या टहनी की नजाकत नहीं
बागीचा है हम
उजड़ जाते हैं पतझड़ में
बसंत में फिर खिल जाने के लिए
जब मन में उमड़ रहे भावों को
कहना मुश्किल हो जाता है
जब सब कुछ साझा करने को,
ये हृदय आतुर हो जाता हैं
जब मेरे सुख-दुख, हर्ष, शोक का साथी कोई नहीं होता
तब सहनशील सा आवारा सा
वो कागज साथ निभाता है
जब शिशु के पहले स्पर्श का वर्णन,
कोई कवि बतलाता है
तब मानो वो कागज खुद को
सौभाग्यशाली सा पाता है
उसका पहली बार मुझे मां कहना
मानो मेरी दुनिया ही सिमट गई थी उसमें
जब ऐसा नाजुक सा पहलू
पन्ने पर उकेरा जाता है
तब मानो उस कागज का भी मन गदगद हो जाता है
लेकिन जब वही संताने मुंह मोड़कर जाती हैं
तब झुर्रियों सा कुंठित
केवल वो कागज ही साथ निभाता है
जब मादकता से लिप्त, कोई प्रेम प्रसंग सुनाया जाता है
तब मानो उस कागज को भी
दुल्हन सा सजाया जाता है
अलंकार वो पहने इतने मन ही मन शर्माता है
और समाज के बागी उस प्रेम युगल का
केवल वो कागज ही साथ निभाता है
कल रात गोलाबारी में 10 सैनिक शहीद हो गए
ये सुनकर एक मां के कोमल मन सा
शायद, वो कागज भी छलनी हो जाता है
अश्रु बहाए, गर्व करें
खुद को इस असमंजस में पाता है
टूट बिखरता उस विधवा के कंगन सा
रंग विहीन हो जाता है
फिर श्वेत साड़ी सा फीका तन्हा
केवल वो कागज ही साथ निभाता है
शायद जब तक आप इसे पड़ेंगे
मैं दुनिया से जा चुका होगा
कागज का वो छोटा टुकड़ा
जब सुसाइड नोट बन जाता है
हतप्रभ रहकर सन्नाटे सा
मानो वो पन्ना भी मर जाता है
इतनी पीड़ा का बोझ लिए
जब व्याकुलता से भर जाता है
औजार बना सा कोर्ट-कचहरी
केवल वो कागज ही साथ निभाता है
गीता कुरान बाइबिल में बंधकर
सब धर्मों का लुत्फ उठाता है
फिर भी वो कोरा कागज
बेधर्म बना रह जाता है
और शायद इसीलिए घूमता मस्त बगुले सा सरहद नहीं निभाता है
अरे क्या ऊंच-नीच क्या भेदभाव
वो कागज़ तो सबका साथ निभाता है
सबका साथ निभाता है।
– Kirti Dahiya