“Ek Jhalak Dekh Ke….” By Shakeel Azmi
मर के मिट्टी में मिलूंगा खाद हो जाऊंगा मैं
फिर खिलूंगा शाख पर आबाद हो जाऊंगा मैं
बार-बार आऊंगा मैं तेरी नजर के सामने
और फिर एक रोज तेरी याद हो जाऊंगा मैं
तेरे सीने में उतर आऊंगा चुपके से कभी
फिर जुदा होकर तेरी फरियाद हो जाऊंगा मैं
अपनी जुल्फों को हवा के सामने मत खोलना
वरना खुशबू की तरह आजाद हो जाऊंगा मैं
और कुछ दिन यहां रुकने का बहाना मिलता
इस नए शहर में कोई तो पुराना मिलता
मैं तो जो कुछ भी था, जितना भी था
सब मिट्टी था
तुम मगर ढूंढते मुझ में तो खजाना मिलता
मुझको हंसने के लिए दोस्त मयस्सर है बहुत काश रोने के लिए भी कोई साना मिलता
कहानी जिसकी थी उसके ही जैसा हो गया था मैं
तमाशा करते करते खुद तमाशा हो गया था मैं
ना मेरा नाम था ना दाम बाजार-ए-मोहब्बत में
बस उसने भाव पूछा और महंगा हो गया था मै
बिता दी उम्र मैंने उसकी एक आवाज सुनने में
उसे जब बोलना आया तो बहरा हो गया था मैं
बुझा तो खुद में एक चिंगारी भी बाकी नहीं रखी उसे तारा बनाने में अंधेरा हो गया था मैं
तू नहीं दिल में, मगर तेरा निशां बाकी है
बुझ गई आग मोहब्बत की, धुआं बाकी है
जिस जगह हमने कैलेंडर में जुदाई लिखी
एक मुलाकात की तारीख़ वहां बाकी है
मेरा विश्वास मोहब्बत से नहीं उठ सकता
जब तलक शहर में फूलों की दुकां बाकी है
मैं तेरे बेवफा होने से परेशान नहीं
दिल लगाने को अभी सारा जहां बाकी है
हार हो जाती है जब मान लिया जाता है
जीत तब होती है जब ठान लिया जाता है
एक झलक देख के जिस शख्स की चाहत हो जाए
उसको पर्दे में भी पहचान लिया जाता है
खुद को इतना भी मत बचाया कर
बारिशें हो तो भीग जाया कर
काम ले कुछ हसीन होंठो से
बातों-बातों में मुस्कुराया कर
चाँद लाकर कोई नहीं देगा
अपने चेहरे से जगमगाया कर
धूप मायूस लौट जाती है
छत पे कपड़े सुखाने आया कर
कौन कहता है दिल मिलाने को
कम से कम हाथ तो मिलाया कर
बहुत कुछ जान के जाना है तुमको,
बड़ी मुश्किल से पहचाना है तुमको,
मुझे तुम जो समझते हो , गलत है,
किसी दिन ये भी समझाना है तुमको,
मैं अपने खौफ़ की हद पर खड़ा हूँ,
अब इसके बाद घबराना है तुमको,
ये जंगल है यहाँ घर है न गमले,
यहीं पे खिल के मुरझाना है तुमको,
चले जाओ मगर घर मत गिराओ,
इसी चौखट पे फिर आना है तुमको,
परो को खोल जमाना उड़ान देखता है
जमीं पे बैठ के क्या आसमान देखता है
मिला है हुस्न तो इस हुस्न की हिफ़ाज़त कर
सँभल के चल तुझे सारा जहान देखता है
कनीज़ हो कोई या कोई शाहज़ादी हो
जो इश्क़ करता है, कब ख़ानदान देखता है?
हर घड़ी चश्मे खरीदार में रहने के लिए
कुछ हुनर चाहिए बाजार में रहने के लिए
ऐसी मजबूरी नहीं है कि चलूं पैदल मै
खुद को गर्माता हूं रफ्तार में रहने के लिए
मैंने देखा है जो मर्दों की तरह रहते थे
मस्खरे बन गए दरबार में रहने के लिए
अब तो बदनामी से शोहरत का वो रिश्ता है कि लोग
नंगे हो जाते हैं अखबार में रहने के लिए
– Shakeel Azmi