Aawaaz De Mujhko Muhabbat Se By Munawwar Rana | Shayari | Jashn-e-Rekhta

About This Shayari :- This beautiful Shayari for Jashn-e-Rekhta is presented by Legend Shayar Munawwar Rana and also written by him which is very beautiful and delightful.

About This Shayari :- This beautiful Shayari for Jashn-e-Rekhta is presented by Legend Shayar Munawwar Rana and also written by him which is very beautiful and delightful.

आवाज़ दे मुझको मुहब्बत से

हर एक आवाज अब उर्दू को फरियादी बताती है 
ये पगली फिर भी अब तक खुद को शहजादी बताती है 
कई बातें मोहब्बत सबको बुनियादी बताती है 
जो परदादी बताती थी वही दादी बताती है
जहां पिछले कई वर्षों से काले नाग बैठे हैं
वहां एक घोंसला चिड़ियों का था दादी बताती है
कई बातें मोहब्बत सबको बुनियादी बताती है
कलंदर संगमरमर के मकानों में नहीं मिलता
मैं असली घी हूँ बनियों की दुकानों में नहीं मिलता
तो फिर दुनिया में मेरे चाहने वाले कहाँ होते?
ये अच्छा शेर है ये कारखानों मे नहीं मिलता
सगी बहनों का रिश्ता है जो उर्दू और हिंदी मे
कहीं दुनिया की दो ज़िन्दा ज़बानों में नहीं मिलता
फिज़ा से शाम होते ही परिंदे लौट आते हैं
ज़मीन पर जो सुकूं है आसमानों में नहीं मिलता
थकन को ओढ़ के बिस्तर में जा के लेट गए 
हम अपनी क़ब्र-ए-मुक़र्रर में जा के लेट गए 
तमाम उम्र हम इक दूसरे से लड़ते रहे 
मगर मरे तो बराबर में जा के लेट गए  
बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है
न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है
बड़े-बूढे कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं
कुएँ में छुप के आख़िर क्यों ये नेकी बैठ जाती है
नक़ाब उलटे हुए जब भी चमन से वो गुज़रता है
समझकर फूल उसके लब पे तितली बैठ जाती है
यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे
यही मौसम है अब सीने में सर्दी बैठ जाती है
सियासत नफ़रतों का ज़ख़्म भरने ही नहीं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है
मैं दुश्मन ही सही आवाज़ दे मुझको मुहब्बत से
सलीक़े से बिठा कर देख हड्डी बैठ जाती है
मैं इसके नाज़ उठाता हूँ सो यह ऐसा नहीं करती
यह मिट्टी मेरे हाथों को कभी मैला नहीं करती
खिलौनों की दुकानों की तरफ़ से आप क्यों गुज़रे
ये बच्चे की तमन्ना है यह समझौता नहीं करती
शहीदों की ज़मीं है जिसको हिन्दुस्तान कहते हैं
ये बंजर हो के भी बुज़दिल कभी पैदा नहीं करती
अजब दुनिया है तितली के परों को नोच लेती है
अजब तितली है पर नुचने पे भी रोया नहीं करती
सियासत किस हुनरमंदी से सच्चाई छुपाती है,
कि जैसे सिसकियों का जख्म शहनाई छुपाती है
जो इसकी तह में जाता है वो फिर वापस नहीं आता,
नदी हर तैरने वाले से गहराई छुपाती है
ये बच्ची चाहती है और कुछ दिन माँ को खुश रखना,
ये कपड़ो की मदद से अपनी लम्बाई छुपाती है
किसी के ज़ख्म पर चाहत से पट्टी कौन बांधेगा
अग़र बहने नही होगी तो राखी कौन बांधेगा
जहा लडकी की इज्ज़त लुटना एक खेल बन जाए
वहा पर ऐ कबुतर तेरे चिट्ठी कौन बांधेगा
तुम्हारी महफ़िलों में हम बड़े बूढ़े ज़रूरी हैं
अगर हम ही नहीं होंगे तो पगड़ी कौन बांधेगा
                                – Munawwar Rana