Suno Mujhe Tumse Kuch Kehna Hai By Aqib Raza | The Social House Poetry

About This Poetry :- This beautiful Proposal Poem  'Suno Mujhe Tumse Kuch Kehna Hai' for The Social House is performed by Aqib Raza and also written by him which is very beautiful a piece.

About This Poetry :- This beautiful Proposal Poem  ‘Suno Mujhe Tumse Kuch Kehna Hai‘ for The Social House is performed by Aqib Raza and also written by him which is very beautiful a piece.

Suno, Mujhe Tumse Kuch Kehna Hai


मेरी ग़ज़ल सुनकर पूछते हैं लोग
के शायर कौन सा है?
लब आकिब के लग रहे हैं
मगर दर्द जौन सा है

ना तुम्हें हमसे ना हमें तुमसे गिले होते
शायद बेहतर यही होता कि हम तुम ना मिले होते

करने वालों ने मेरे साथ क्या नहीं किया है
कौन सा ऐसा जख्म है जो नहीं दिया है
हजारों हुस्न मेरे बिस्तर से होकर गुजर गए
मगर इश्क नहीं हुआ है तो नहीं किया है

गर तलाशा होता तो मैं कहां नहीं था
तू जहां भी गया मैं वहां नहीं था
सारी उम्र की शायरी निचोड़ दी इजहार-ए-इश्क में हमने
और तेरे जवाब में सब कुछ था मगर हां नहीं था

खता-ए-इश्क़ है तो रुसवा सरेआम कीजिए
हम अज़ल से हैं बदनाम, और बदनाम कीजिए
आज उसकी याद आने का अंदेशा है हमें
आप हमारे लिए शराब का इंतजाम कीजिए खुशगवार गुजर रही है जिंदगी हमारी 
कुछ तो नया दर्द देकर जिंदगी हराम कीजिए
नशा बुरा कह रहे हैं आप यहां बैठकर
ये बात अच्छी नहीं मयकदे का कुछ तो एतराम कीजिए

सुनो मुझे तुमसे कुछ कहना है
सुबह शाम तुम्हारी बाहों में रहना है
खफा हो जाओ अगर तुम मुझसे कभी
तुम्हारा हर नखरा मुझे सहना है
मेरे साथ किए हर वादे को निभाना
जो आवाज दूं तुमको तो तुम चले आना
ख्वाबों के दरिया को समेट लूंगा बाहों में
तुम्हारे चेहरे को बसा लूंगा निगाहों में
अश्क ना बहने दूंगा एक भी तुम्हारा
जो लड़खड़ाओगे कभी तो बन जाऊंगा सहारा
तुम्हे सीने से लगा कर रखूंगा अपने दिल के पास
ना होने दूंगा कभी किसी ग़म का एहसास
बहुत मोहब्बत है तुमसे मेरा यकीन कर लो
रखूंगा दिल में बसा कर मेरा यकीन कर लो
तुम्हारी हर गम से मुझे गुजरना है
यूं ही तुमसे मोहब्बत करते रहना है
सुन रही हो ना मुझे तुमसे कुछ कहना है

मैंने इंतजार किया जहर के असर होने तक
बरसती रही बारिश मेरी आंखों में सहर होने तक
कभी फाके हुए तो कभी हिजा हाथ आयी
मैं यूं ही जीता गया गुजर बसर होने तक
मुझे यूं तड़पाया जिंदगी ने कि फर्क ना पड़ा
मैं देखता रहा अपना घर खंडहर होने तक
थी फजीलत जिन्हें हासिल उन्हें ही मकां मिला
मैं भी कोशिशें करता रहा बा-हुनर होने तक
उसके हाथों में मेहंदी की खुशबू महकी जिस रोज
सीने में बसाया नश्तर खंजर होने तक
यकीन नहीं था उनको कि मैं जान से गया 
लोग खड़े रहे मेरे सुपुर्द-ए-कब्र होने तक

नन्ही उंगलियों को थाम लेती है
मां हर दुख दर्द जान लेती है
पहले देर रात तक घर आने पर ताना देती है
फिर खुद ही उठकर खाना देती है
इग्नोर करती है मगर नजर रखती है
मेरी हर हरकत की वो खबर रखती है
कितने खुशनसीब है वो जिनकी मां हयात है
मेरे पास कुछ भी नहीं उनके पास कायनात है
कदर करो मेरे दोस्त खुदा ने तुम्हें इनायत बक्छी है यह सारी दुनिया झूठी है बस एक वही जात सच्ची है
मां के लिए क्या क्या लिखूं मैं
उन्हें कोई लब्ज़ बयां नहीं कर सकता
खुदा भी जिसे वापस बुला तो सकता है
मगर दिल से जुदा नहीं कर सकता
सजदों में खुदा से आपके लौट आने की फरियाद करता है
मां सुन रही हो ना आपका बेटा आपको बहुत याद करता है

Aqib Raza