बढ़ई और चिड़िया | केदारनाथ सिंह
एक बढ़ई का लकड़ी चीरना उसके जीवन का दैनिक कार्य है। इस कविता में केदारनाथ सिंह ने ऐसा संघर्ष चित्रित किया है जिसमें भविष्य को लेकर कई आशंकाएं जन्म लेती हैं। ऐसी ही एक आशंका चिड़ियाओं के जीवन का संकट है। इस कविता में उन्होंने लकड़ी के चीरे जाने के दौरान पर्यावरण और जैविक संकट की तरफ इशारा किया है। वैसे तो गौरेया का इस कविता में कहीं जिक्र नहीं है परन्तु आने वाली पीढ़ी के लिए गौरेया केवल कविताओं या किसी लेख में रह जाएगी और चित्रों में ही बची रहेगी। आज के ज्यादातर बच्चों ने गौरेया को देखा तक नहीं है।
कभी कभार दिख जाती है गौरेया अपना अस्तित्व बचाते हुए। जब कभी आंगन में फुदकती हुई दिख जाती थी गौरेया, उसका ही उदाहरण देते हुए मां अपनी बेटियों को डांटते हुए कहती थी की “क्या चिड़िया की तरह फुदकती रहती है हमेशा?” इसी आशय पर केंद्रित यह हिन्दी कविता ‘बढ़ई और चिड़िया’ है।