नदी | केदारनाथ सिंह
केदारनाथ सिंह की कविता ‘नदी‘ इनके प्रसिद्ध कविता-संग्रह ‘अकाल में सारस’ से ली गई है। ‘नदी‘ वास्तव में केवल बहते हुए जल की धारा मात्र नही, वह हमारी जीवन और प्राण रक्षक भी है, संस्कृत का जीवंत रूप है, नदी हमारी सभ्यता की जननी है। यदि हम अपनी संस्कृति और सभ्यता से हमेशा दूर रहने की कोशिश करेंगे तो एक दिन ऐसा ना हो की हम हमेशा के लिए इनसे अलग हो जाए। इस कविता के जरिए केदार जी हमे अपने संस्कृति और सभ्यता से जुड़ने की सीख देते हैं।
नदी
अगर धीरे चलो
वह तुम्हें छू लेगी
दौड़ो तो छूट जाएगी नदी
अगर ले लो साथ
तो बीहड़ रास्तों में भी
वह चलती चली जाएगी
तुम्हारी उँगली पकड़कर
अगर छोड़ दो
तो वहीं अँधेरे में
करोड़ों तारों की आँख बचाकर
वह चुपके से रच लेगी
एक समूची दुनिया
एक छोटे से घोंघे में
सच्चाई यह है
कि तुम कहीं भी रहो
तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी
प्यार करती है एक नदी
नदी जो इस समय नहीं है इस घर में
पर होगी जरूर कहीं न कहीं
किसी चटाई
या फूलदान के नीचे
चुपचाप बहती हुई
कभी सुनना
जब सारा शहर सो जाए
तो किवाड़ों पर कान लगा
धीरे-धीरे सुनना
कहीं आसपास
एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह
सुनाई देगी नदी!
– केदारनाथ सिंह
Agar dheere chalo
Wah tumhen chhu legi
Daudo to chhut jaaagi nadi
Agar le lo saath
To bihd raaston mein bhi
Wah chalti chali jayegi
Tumhari ungli pakadkar
Agar chhod do
To wahin andhere mein
Karodon taaron ki aankh bachakar
Wah chupke se rach legi
Ek samuchi duniya
Ek chhote se ghonghe mein
Sachchai yah hai
Ki tum kahin bhi raho
Tumhen varsh ke sabse kathin dinon mein bhi
Pyaar karti hai ek nadi
Nadi jo is samay nahin hai is ghar mein
Par hogi jaroor kahin na kahin
Kisi chataai
Ya phooldan ke niche
Chupchaap bahti huyi
Kabhi sunna
ab saara shahar so jaye
To kiwadon par kaan laga
Dhire-dhire sunna
Kahin aaspaas
Ek maada ghadiyaal ki karaah ki tarah
Sunaai degi nadi!
– Kedarnath Singh