Tumhari Yaadein Poetry Lyrics | Sanyogita | The Social House Poetry

'Tumhari Yaadein' Poetry has written and performed by sanyogita on the social house's plateform.

Tumhari Yaadein

इश्क़ महसूस करना भी इबादत से कम नहीं
जरा बताइए खुदा को छु कर किसने देखा है? 
मेरे ज़ेहन से तुम्हारे ज़ेहन तक एक पुल गुजरता है
जिस पर यादें टहल के आ जाया करती है, 
शाम का हाथ थामे, रात की चादर ओढ़े 
सीधे ज़ेहन में घर कर जाया करती है।
किसी अजीज़ दोस्त की तरह बालकनी में तो बागीचे में घंटों वक्त गुज़ारा करती है 
हम दोनों ढलते सूरज को, घर लौटते परिंदों को 
ख़ामोश नजरों से देखते रहते हैं 
चाय की चुस्कियों के साथ खो जाते हैं 
एक दूजे की ठहरी निगाहों में
जिसमें मौजूद हैं ठहरा हुआ वक़्त जो बहता नहीं जमा हुआ दरिया है।
कहते है ना खूबसूरत चीजों की उम्र बहुत छोटी होती है 
जैसे फूलों का खिलना, मुरझाना 
सूरज का उगना, डुब जाना 
बारिश की बूंदों का जमीन पर गिरना, सूख जाना
कुछ वैसा ही था तुम्हारा मेरी जिंदगी में आना एक उलझा हुआ ऊन सी थी मैं 
हज़ार गांठें पड़ी हूई थी 
उस रंग बिरंगी ऊन की उलझी गांठों की 
एक-एक गिरह को बेहद संजीदगी से तुमने सुलझाया था
हां सीने में तुमने कुछ इश्क सा सुलगाया था।
मेरी बेतरतीब उड़ती जुल्फ़ें और उन पर 
तुम्हारी निगाहों का ठहर जाना, 
मेरी दर्द भरे ठहाकों को तुम्हारा 
खामोशी से पढ़ जाना 
मेरी बेबस मायूस निगाहों के किनारों पर 
तुम्हारा घंटों वक्त गुजार जाना
एक नन्हा सा पौधा जिसे वक़्त की चिलचिलाती धूप ने मार सा दिया था
उसे तुम्हारी परवाह की बारिशों ने फिर से पनपा दिया था,
हां सीने में तुमने कुछ इश्क सा सुलगा दिया था। 
तुम्हारी चेकदार शर्ट मेरा गुलाबी दुपट्टा अब गुफ्तगू करने लगे थे 
साथ चलते वक़्त हमारे हाथ अक्सर टकरा जाया करते थे 
शायद एक दूजे को थामना चाहते थे 
बारिशें अब गीली नहीं करती थी, भिगाती थी हवाएं परेशान नहीं करती थी, गुनगुनाती थीं 
मन बावला बेपरवाह तेरे नाम की माला जपता था
क्यों कि तुझमें मुझे अब रब दिखता था। 
वीरान जज़ीरे में जाना पहचाना सा चेहरा नजर आया था 
हां सीने में तुमने कुछ इश्क सा सुलगाया था।
  
लेकिन एक दिन अचानक उस आगाज की अंजाम‌ से क्या मुलाकात हुई
जजीरे में आयी सुनामी हमारे अलगाव की कहानी हो गयी
हल्का सा इश्क़ अब तन्हाइयों के तीस सा हो गया 
जैसे मेरे ज़ेहन से तुम्हारे ज़ेहन तक एक पुल गुजरता है
जिस पर यादें टहल के आ जाया करती है।
किसी मेले में बच्चें का माँ से हाथ छुटना 
जैसे किसी अज़ीज़ का गुमशुदा को जाना, 
वक़्त के साथ जख्म़ तो कमज़ोर पड़ जाते हैं
लेकिन यादें मजबूत हो जाती है
आज भी उन यादों के नन्हे टुकड़े मैंने अपने गुलाबी दुपट्टे में तय किये हुए हैं।,
आज भी तुम साथ हो हर वक्त एक याद बनकर
क्योंकी मेरे ज़ेहन से तुम्हारे ज़ेहन तक एक पुल गुजरता है 
जिस पर तुम्हारी यादें अक्सर आ जाया करती हैं “तुम्हारी यादें”
                                           – संयोगिता