Woh Chahta Toh Mohabbat Nibha Bhi Sakta Tha (Ghazal) | Adnan Mughal | The Social House Poetry

About This Poetry :- This beautiful Proposal Poem  'Woh Chahta Toh Mohabbat Nibha Bhi Sakta Tha' for The Social House is performed by Adnan Mughal and also written by him which is very beautiful a piece.

About This Poetry :- This beautiful Ghazal  ‘Woh Chahta Toh Mohabbat Nibha Bhi Sakta Tha‘ for The Social House is performed by Adnan Mughal and also written by him which is very beautiful a piece.

Woh Chahta Toh Mohabbat Nibha Bhi Sakta Tha

आंख उठती नहीं किसी जानिब
चेहरा आंखों में भर लिया तेरा
हम तुझे भूल भी तो सकते थे
हमने तो हिज्र कर लिया तेरा

वर्क पे क्या लिखा अश्कों ने इस रवानी से
कि सब किरदार निकल आए हैं कहानी से
ना तो तूफान था न कश्ती पुरानी अपनी
हम जो डूबे तो नाखुदा की मेहरबानी से

तुम्हारी धड़कनों का दिल में इतना शोर लगता है कोई दिल्ली पुकारे तो हमें लाहौर लगता है
मेरी नींदें भी अब तो और किसी के ख्वाब बुनती हैं  तुम्हारे नाम के आगे भी अब कुछ और लगता है
शहंशाह हो, सिकंदर हो, कलंदर हो या कोई हो
अगर हो जहन से बीमार तो कमजोर लगता है
तुम्हारे खत चुरा कर ले गया कल रात कमरे से
तुम्हारा ही दीवाना शहर का एक चोर लगता

कुछ दिन से तबीयत मेरी नासाज बहुत है
इस दर्जा हूं खामोश के आवाज बहुत हैं
मैं एक मसला हूं कहां तक निभाओगी
बस कर तो रही हो नजरअंदाज बहुत है
दुनिया को सुनाने को तो किस्से हैं हजारों
दिल में दबा के रखो तो एक राज बहुत है
है ताज मोहब्बत की निशानी तो क्या करूं
मैं शाहजहां हूं मुझको तो मुमताज बहुत है

अश्क आंखों में एक हसीन नजर आता है
वो जब हंसता है तो ग़मगीन नजर आता है
उसे पता है वो शहजादी नहीं है लेकिन
उसे ख्वाबों में अलादीन नजर आता है
यूं तो बाहर से वो कश्मीर के जैसा है हंसीन
और अंदर से फलस्तीन नजर आता है

दुनिया ने मेरे इश्क में फ़ित्ने निकाल के
इतने तो ना थे रख दिए जितने निकाल के
अजल से हुस्न पे भारी रहा है इश्क़ यारों
यकीन ना हो तो गिनलो इश्क से नुक्ते निकाल के  जो जागने वाले थे वो सब लूट ले गए
लाया था कोई बेचने सपने निकाल के
जब जाना शीशा घर ने के अंधों का शहर है
सब तोड़ डाले आईने उसने निकाल के

किस्सो में, किताबों में, रिसालों में रह गया
वो एक ख़्याल बनके खयालों में रह गया
मैं था कि तलबगार था बस एक जवाब का
वो था कि सारी उम्र सवालों में रह गया
वो शख्स जो ना इत्र था ना ही गुलाब था
खुशबू सा महकता वो रुमालों में रह गया
खुद को तेरी महफिल से उठा लाए हम मगर
दिल था के उलझ कर तेरे बालों में रह गया

मेरी तलाश में निकल के आ भी सकता था
वो चाहता तो मोहब्बत निभा भी सकता था
उसके हर खत को संजोकर के किताबों में रखा
उसी की तरह मैं सब खत्म जला भी सकता था

ऐसा भी क्या हुआ कि खुशी भूल गए तुम
हमसे बिछड़ कर यार हंसी भूल गए तुम
जिसको था भूल जाना वो तो याद रह गया
जो कुछ था याद रखना, वही भूल गए तुम
तोहफे तो तुमने अब भी रखे हैं संभाल कर
तोहफे दिए थे किसने? यही भूल गए तुम
वो कह रहा था अब भी याद आते हो अदनान
पर मैंने कहा यार! नहीं, भूल गए तुम

                                  – Adnan Mughal