सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए | केदारनाथ सिंह
‘अकाल में सारस‘ में केदारनाथ सिंह की एक हिन्दी कविता ‘सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए’ पर केंद्रित है । गोधूलि वेला से शुरू होकर दीये की लौ के जलते – प्रकंपित होते स्वरूप को अवलोकित करती हुई कवि – दृष्टि गाँव में रात के सघन से सघनतर होते बिंबों को दृश्यमान करती है , जहाँ ताकती हुई आँखों का अथाह सन्नाटा पसर चुका है । गाँवों की ज्यादातर रातें आज भी ऐसी ही स्याह नजर आती हैं ।
सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए
भर लो
दूध की धार की
धीमी-धीमी चोटें
दिये की लौ की पहली कँपकँपी
आत्मा में भर लो
भर लो
एक झुकी हुई बूढ़ी
निगाह के सामने
मानस की पहली चौपाई का खुलना
और अंतिम दोहे का
सुलगना भर लो
भर लो
ताकती हुई आँखों का
अथाह सन्नाटा
सिवानों पर स्यारों के
फेंकरने की आवाजें
बिच्छुओं के
उठे हुए डंकों की
सारी बेचैनी
आत्मा में भर लो
और कवि जी सुनो
इससे पहले कि भूख का हाँका पड़े
और अँधेरा तुम्हें चींथ डाले
भर लो
इस पूरे ब्रह्मांड को
एक छोटी-सी साँस की
डिबिया में भर लो
– केदारनाथ सिंह
Bhar lo
Doodh ki dhaar ki
Dhimi-dhimi choten
Diye ki lau ki pahli kapkapi
Aatma mein bhar lo
Bhar lo
Ek jhuki huyi budhi
Nigaah ke saamne
Manas ki pahli chaupaai ka khulna
Aur antim dohe ka
Sulgna bhar lo
Bhar lo
Taakti huyi aankhon ka
Athaah sannata
Sivaano par syaaron ke
Phekarne ki aawaze
Bichchhuon ke
Uthe huee dankon ki
Saari bechaini
Aatma mein bhar lo
Aur kavi ji suno
Isse pahle ki bhookh ka hanka pade
Aur andhera tumhen chinth daale
Bhar lo
Is pure brahmaand ko
Ek chhoti-si saans ki
Dibiya mein bhar lo
– Kedarnath Singh